Thursday, August 19, 2010

रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम?


रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम,
अपेक्षाओं की ऊंची दीवार कैसे गिराएँ हम,
समझ आती है उम्र के साथ ऐसा समझते थे,
उम्र के साथ बने  बच्चों को कैसे समझाएं हम 
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम...


आँखों पर पड़े परदे से देखा तो सब सुन्दर था,
आसमान पे सितारे , हरे पहाड़ , नीला समुंदर था,
पर्दा हटा, धुंध छटी, सारे सपने बिखर गए,
अब चुभते सपनों के कांच कैसे उठायें हम
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम...


होटों की हंसी थमी और आँख भर आई,
बीते दिनों की यादें पल भर में नज़र आयीं,
खुश हुआ आज अब कल में ख़त्म हो गया,
गए हुए पलों की यादें, क्या भूलें क्या अपनाएं हम
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम...


कुछ बरस बाद एहसास हुआ ये हम न थे,
थी बहुत तमन्नाएँ, इतने बे-रंग हम न थे,
 आइना देखा तो खुद को पहेचाना न गया,
अपने ही अक्स को अब क्या पहेचान दिलाएं हम 
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम...


हम ज़िन्दगी नहीं जीते, ज़िन्दगी हमको जीती है,
रोज़ नए रंग, नयी राह, नए मोढ़ लेती है,
आँख खुले उससे पहले राहें आगे बढ़ जाती हैं,
पिछले मोढ़ पर वापिस जाकर किसको आवाज़ लगायें हम,
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम...


एक कोशिश, ज़िन्दगी को नयी पहेचान देने की,
एक कोशिश रिश्तों की सरगम को नयी तान देने की,
दीवार ऊंची ही सही, कुछ तो पार हो गयी,
बाकी की राह में साथ-२ बस मुस्कुराएँ हम 
रिश्तों के उलझे धागे कैसे सुलझाएं हम.....................